महल की खिड़की

विकास एवं प्रगति सदैव प्रसन्नता का स्त्रोत हों,यह आवश्यक नहीं है। इस कविता में सोने की खिड़की पर बैठी चिड़िया के माध्यम से भौतिक रूप से सम्पूर्ण मनुष्य की आत्मिक अभिलाषा को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। प्रशंसा,आलोचना एवं टिप्पणियाँ सादर आमंत्रित हैं। 
उस महल की खिड़की
जो बनी है सोने की
बैठी है उस पर
एक मैना।
सलाखें हैं नहीं
फिर भी वो नहीं उड़ती,
खुले पल्ले भी
नहीं जगाते उसमें कोई आग़
उड़ जाने की;
बैठी है नि:शब्द
जैसे मर गया हो सब
उस बचपन की तरह
बड़ा होते ही जिसकी
हत्या कर दी थी समाज ने।
क्यों उड़े वो छद्म आकाश में
जीने को झूठी आज़ादी,
गर्मी में शहरी कुत्ता जैसे
नाली में लोट कर सोचता है
उसने गंगा नहा लिया;
मैना का चश्मा भी तो
अब धुंधला गया है,
खतरा है उड़ने पर
लड़ कर खम्भे से
ज़मीन पर गिर जाने का।
गिरना, वो भी ऐसा
जिसमें हो सम्भावना
ना तो फिर उठने की
और ना ही मर जाने की।
-प्रशान्त
    

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