पीला उत्साह का रंग है। एक ऐसा रंग जो प्रकृति के प्रकाश-पुंज सूर्य का वृहद् प्रतिबिम्ब है। उसकी अगाध ऊर्जा का सर्वत्र विद्यमान चिन्ह है। कुछ ऐसी ही ऊर्जावान लगी उदय प्रकाश जी द्वारा लिखी गयी लम्बी कहानी “पीली छतरी वाली लड़की।” २१वीं सदी के समसामायिक साहित्य की सबसे सशक अभिव्यक्तियों में इस रचना को सदैव उच्च स्थान मिलेगा। समय-चक्र के घूमने के साथ इसका विवाह अगर इतिहास से भी हो जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य या अतिरेक की बात नहीं होगी। लेकिन, मुझे तब ज्यादा ख़ुशी होगी जब यह रचना आधुनिक काल की “लिव-इन पार्टनर ” की तरह याद की जाये! ऐसे उच्च श्रेणी के तार्किक विमर्श आज के समय की मांग एवं आवश्यकता दोनों ही हैं।
उदय प्रकाश जी ने एक लेखक के रूप में इस दीर्घ रचना द्वारा अपनी वैचारिक अभिव्यक्ति की संदर्भित पराकाष्ठा को प्राप्त किया है। विभिन्न उपमाओं द्वारा जिस प्रकार से तथाकथित आधुनिक जीवन की वीभत्स सत्यता का उल्लेख किया गया है, उससे कथानक को एक चिंतनशील सजीवता मिलती है। एक सोचने वाला पाठक इस रचना के पठन के बाद चिंतन एवं सघन आत्ममंथन की असीमित सामग्री का स्वामी बन सकता है। वैश्वीकरण का संक्रमण किस प्रकार से हमारी सोच, सभ्यता और समाज को खोखले “ग्लोकालाईसेशन “ के गर्त में धकेल रहा है , उसका विभिन्न पात्रों के माध्यम से निर्मम सजीवता का चित्रण भावों को नया आयाम देता है।
किन्तु मुझे एक कमी दिखी जो कदाचित कथानक की मूलभूत आवश्यकता रही हो, किन्तु उस कमी ने एक जातिगत “फ्रैंकनस्टाईन ” की रचना अवश्य की है। मेरा इशारा कहानी में ‘ब्राह्मणों’ की एकसूत्रीय “ब्राण्डिंग” की तरफ है जिसके द्वारा लेखक ने जातिवाद का भरपूर खंडन तो किया है, किन्तु एक वर्ग कि अतिशय आलोचना द्वारा उन्होनें अनचाहे ही जातिवाद के कुछ बीज पनपने लिए छोड़ दिए हैं। खेती की मौजूदा हालत देखते हुए आशा यही है कि किसी भी प्रकार की क्रमवार उपज नहीं, अपितु जातिवाद कि जंगली झाडी ही पैदा होगी।
लेखक की मंशा निःसंदेह ही सराहनीय है किन्तु एक वर्ग-विशेष के समस्त सदस्यों को पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने से, कहीं ना कहीं सामाजिक समन्वय की उदात्त परिकल्पना को ठेंस अवश्य पहुँची है। अपने एकतरफा निर्णय से लेखक ने उन अनेक ब्राह्मणों(और बाकी जातियों) के योगदान को सिरे से नकार दिया है जिन्होंने अपना वैचारिक उत्थान करते हुए, अपने समाज की रूढ़ियों को नकारते हुए, अपने समाज के विरुद्ध जाकर जातिवाद जैसे उद्दण्ड दोमुंहे राक्षस के विरुद्ध या तो अनवरत मोर्चा लिया है या फिर उसका प्रयास किया है। २१वीं सदी में भी किसी को पुराने तराजू में तोलना नैसर्गिक न्याय का उल्लंघन है। यह नहीं कहा जा सकता कि हमारे समाज ने इतनी तरक्की कर ली है जहाँ पर विचारों में निरा-निष्पक्षता है। सदियों से चली आ रही सामंतवादी व्यवस्था ने शायद उच्च वर्गों के परिष्कृत विचारों पर और उनके व्यवहार पर असर डाला हो, लेकिन उनमे से कोटि संख्य ऐसे हैं जिनकी स्वर्जित चेतना ने सदैव जातिवाद का विरोध किया है। शायद ये वही चेतना है जिसने कहानी में अंजलि को राहुल के साथ भागने के लिए भी प्रेरित किया होगा।!
आलोचना के क्षेत्र में निर्बाध विचरण करते हुए हम इस सत्य को नहीं भूल सकते कि सामाजिक समरसता को प्राप्त करने हेतु बहुलतावाद एवं समन्वय ही सबसे व्यवहारिक माध्यम है। और यह तब तब तक मूर्त रूप नहीं ले सकता, जब तक हम एक दूसरे पर परोक्ष-अपरोक्ष या किसी भी रूप में हमला करते रहेंगे।
बाज़ारीकरण के इस दौर में सामाजिक उत्थान हेतु आवश्यक है कि हम किसी भी प्रकार की “गरलात्मक ब्राण्डिंग” से बचते हुए एक स्वस्थ चर्चा और जमीनी प्रयास द्वारा बिगड़ी हुयी तस्वीर को सुन्दर बनायें।
उदय प्रकाश जी ने अपनी रचना द्वारा अत्यंत सुदृढ़ नींव की रचना की है। आवश्यकता है कि समाज उस नींव के ऊपर ऐसी इमारतों का निर्माण करे जो कि आशा एवं समानता की पीली छतरी से सदैव आच्छादित रहे। एक ऐसी पीली छतरी जो पीली तितली बनकर सदैव उन्मुक्त रूप से वर्गहीन विचरण कर सके और इस बहुआयामी उन्मुक्तता का हम सभी को आभास होता रहे।
-प्रशान्त