महताब

मेरी सोच का महताब वैसा ना है
जैसा देखा होगा तुमने फलक पर
ये ना निकलता है रात में
ना डूबता है दिन में
गुरनूर  है मेरे दिल में, जैसे कोई
ना भूली हुयी याद

वो याद
जो कभी नरम फूल थी
और रखा था जिसे
मैनें अपनी ज़िन्दगी की किताब में
सहेज कर
माँ की दुआओं की तरह

पर किताब के सीले हुए पन्ने भी
ना बचा पाये पंखुड़ियों को खुरदुरा होने से
जो रोज़ उभार देतीं हैं
खरोंच मेरे वजूद पर
बनकर सबूत उस कल का
जो मेरा हो कर भी कभी मेरा ना था

– प्रशान्त 

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