तुम आये नहीं घर मेरे बहुत दिन से

तुम आये नहीं घर मेरे बहुत दिन से
लगता है मेरे ख़्वाब गये हैं छिन से
 बदला नहीं है कुछ अब भी
ये ईंटों का ढाँचा अब तक खड़ा है
कुछ नाज़ुक किनारों को अगर छोड़ दो
मेरा दिल सख्त है अब भी बहुत
ज़िन्दगी भी दौड़ रही है
सेकण्ड की सुई के साथ
कुछ इस पेशेवराना अंदाज़ में
जैसे इसे भी किसी शो-रूम में सजना है
बेख़बर आगे की उस कहानी से
जो ऊँचीं दीवार पर लिखी जायेगी
जो चमकेगी तो ख़ूब
पर कभी ना पढ़ी जायेगी।

-अशांत 

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