प्रेम सुन्दर था
बंधा मन की सीमाओं में,
धृष्टता कर लाँघा उसको
पहुंचा शरीर के पास
जहां देकर क्षणिक सुख
उसको नोचा खसोटा गया,
फिर फेंक दिया बहुत दूर
मिटा दिए सारे तथ्य,
बंद है प्रेम आज अपने
ह्रदय के कारागार में
शून्य सा
भावनाहीन,लज्जित,बिखरा हुआ
डरा हुआ
बलात्कारी ह्रदय से
झांकता हुआ
समय की खिड़की से
आज का निरीह प्रेम,
कभी निर्भय था
उल्लसित सुरभित प्रेमालाप
हेतु सदैव तत्पर था,
कुंठित बैठा कोने में आज
छलित दिग्भ्रमित
प्रश्न करता खुद से
कोसता हुआ खुद को,
जीता अस्तित्वहीन जीवन
जैसे एक फल वाला पेड़
जिसमें अब
फल नहीं लगते
-अशांत
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