जो तुमने कभी लिखा ही नहीं
आंसुओं की स्याही भला
क्या कोई रंग लाती है!
फिर भी
आज सुबह से मन भारी है
लगता है
ज़माने भर की धुंध मेरे कमरे में जमा है
तुम नाराज़ थीं
तो बता दिया होता यूं ही
इतने कड़े ख़त की
आखिर क्या ज़रूरत थी!
रोज़मर्रा की तरह
जाते हुए मंजिल को
अपने जूते ही देखता रहा
कई दिनों से
बग़ल में तुम जो नहीं हो!
है अभी भी वो ख़त
मेरे दिमाग की जेब में
पढ़ रहा हूँ बार-बार
हर अनलिखे हर्फ़ को
तुम्हारी लिखावट
कुछ बिगड़ गई है
लगता है
कई दिनों से तुमने
ऐसा ख़त लिखा नहीं!
घड़ी की लाल सुई
रात को हरा कर रही है
है एक अच्छा इशारा
घर जाकर फिर से
ख़त पढने का
समझने का
ये सोचने का
इतने दिनों बाद
मेरी किस याद ने
तुम्हे लिखने को मजबूर कर दिया!
मुक़र्रर पढ़ कर
मैंने भी तैयार किया है
एक जवाब
फर्क ये है
मेरा लहजा कुछ नरम है
पर कमबख्त
ना मिल रहा कोई पोस्ट बॉक्स
ना नया पता तुम्हारा “पता” है
कुछ चलन है ज़माने का “अशांत”
दिल आज कल
पते बहुत बदलते हैं!
अशांत