टापर (TOPPER)

भारतीय सामाजिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि में एक भिन्न भांति की व्यवस्था है जो की साधारण मनुष्यों में से कुछ सौभाग्यशालियों को ऊंचा दर्जा प्रदान करती है। जैसे ही कोई साधारण मनुष्य अपने प्रयासों, कयासों, या पहुँच के कारण इस वर्गीकरण में स्थान पाया है, तब उसका अतुल्य महिमामंडन अकल्पनीय होता है। पूर्व का साधारण सा मनुष्य क्षण भर में अभूतपूर्व बन जाता है। इन प्रकार के मनुष्यों को जनसाधारण ‘टापर’ के नाम से जानते हैं।

हर बड़े शब्द की परिभाषा अवश्य होती है। पर समझ नही आता कि इतना महत्त्वपूर्ण शब्द कैसे छूट गया। अब अगर बुद्धिजीवियों से भूल हो ही गई है तो मई ही उसका परिमार्जन कर देता हूँ।
परिभाषा- मनुष्यों की एक ऐसी प्रजाति जो कि परीक्षाओं में सर्वोत्तम अंक पाने में अभ्यस्त होती है और जिसके फलस्वरुप उसका सामाजिक जीवन में उत्थान होता है, उसे टापर कहते हैं।

मेरे विचार में टापर ‘मार्क्स’वाद (‘Marks’ism) की देन है। असली मार्क्सवाद तो काफ़ी अव्यवहारिक सिद्धांत प्रमाणित हो चुका है। इस सन्दर्भ आम राय भी बन चुकी है। किंतु मैं जिस मार्क्सवाद की बात कर रहा हूँ उसकी जड़ें भ्रष्टाचार और आतंकवाद ही की तरह काफ़ी गहरी जमी हुई हैं। असमानता और असंतोष पैदा करने वाला टापरीकरण सिद्धांत प्रबलतम रूप में ऐसे परिणाम लाने में सक्षम है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के हर एक स्तर पर हर कोई टापर के तमगे के लिए निरंतर संघर्ष कर रहा है। जिसे मिल गया है वो उसी गुमान में मस्त है और जिसे नही मिला है वो बदगुमानी में बदमस्त है। यह एक प्रकार की अभिजातीय व्यवस्था है जहाँ ज्ञान और शिक्षा से कोई वास्ता नहीं है। यहाँ एक मात्र गुण की महत्ता एवं पहचान है और वो है तथ्यों की पकी पकाई मलाई का भरपूर सेवन करना। अत्यधिक मात्र में इसके सेवन से टापर को बदहजमी तक हो जाती है। परिणामवश वो हल्का हो जाता है और उसके पैर ज़मीन पर नही पड़ते। ज्ञान का हाजमोला भी नोट्स की गैस को कम नही कर पता। किंतु प्रशंसनीय रूप से सतही ज्ञान की भण्डार इस प्रजाति ने छद्म बुद्धिजीवी आवरण पहनने में असोचनीय विशिष्टता प्राप्त कर ली है।

श्रीलाल शुक्ला जी ने अपने कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ में भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए कहा है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था सड़क पर बैठी हुई कुतिया के समान है, जिसका मन हुआ उसे लात मार देता है। टापरीकरण के अनन्य समर्थकों को यह एक करारा जवाब है जो कि इस व्यवस्था को प्रतियोगिता के नाम पर उचित बतलाते हैं। पर बेशर्मी की हद तो ये है कि इसका भी काट कुछ लोगों ने ढूँढ लिया है, जो कि इस कुतिया का आयात निर्यात करके इसे ऊंची नस्ल की होने का दावा करते हैं। भारत में कई जगह उच्च स्तर पर शिक्षण संस्थाओं ने इस बला से मुक्ति पाने का प्रयास किया है। किंतु इतने वृहद् पैमाने पर फैली अव्यवस्था का अत्यन्त ही केंद्रीय प्रयास द्वारा उन्मूलन असम्भव है। और वैसे भी अपवाद अपवाद होता है,सिद्धांत तो जनसाधारण ही निश्चित करते हैं। विडम्बना ही है कि जिसके पास सब बदलने की शक्ति है वो ही शक्तिहीन,विचारहीन और अवलंबित होकर ख़ुद को दुर्व्यवस्था की चक्की में विधिवत पीस रहा है। टापर की विशेषताएं बताने में मैं अपना समय नष्ट नही करूँगा क्योंकि समझदार को इशारा ही काफ़ी है। फिलहाल हम गांधीजी के देश से सम्बन्ध रखते हैं और उन्होंने ही न्यूटन के सिद्धांत का एक विरोधी सिद्धांत दिया है। उसका उल्लेख नही करुंगा किंतु यह स्पष्ट करना चाहूँगा की उस नियम का पालन हमारा देश यथाशक्ति कर रहा है। हर प्रकार विद्या और ज्ञान का शोषण कर रही टापरीकरण व्यवस्था जब हमारे गाल पर तमाचा मारती है ( ना जाने कितने छात्र पढ़ाई के दबाव में आत्महत्या कर रहे है और अनगिनत छात्र रोज़ घुट घुट कर परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप में मर रहे है)तो हम स्वतः अपना दूसरा गाल आगे बढ़ा देते हैं(एक और नयी परीक्षा पहले से ही बोझिल कन्धों पर डाल देते हैं)। हमारे मन में शायद ये आशा बलवती है कि इस सिद्धांत के प्रयोग से जब शक्तिशाली अँगरेज़ भाग गए तो क्या ये व्यवस्था न जायेगी। आख़िर हर फल के लिए कर्म ज़रूरी तो नही है ना। टापरीकरण ने हमें अवनति की धुरी में बाँध कर हमारी चिन्तन्शक्ति को कुंद कर दिया है, जिसके कारण हम सुधार करना तो दूर, ऐसा करने की सोच भी नही रहे।

अब तो ये लगता है कि ‘टापर निषेधक अधिनियम’ (Topper Abolition Act) द्वारा ही प्रतिभा और मौलिक चिंतन को टापरीकरण के ‘रटीले’ विषैले वातावरण से बचाया जा सकता है। शायद तभी समानता का मूल अधिकार मूर्त रूप ले सकेगा। और तभी शायद वास्तविक मेधा चिंतन करके पुरातन काल के समान भारतीय ज्ञान से विश्व को आच्छादित कर करेगी। अन्यथा वर्तमान स्थिति तो पूर्ण रूप से माता के अभिजात आवरण, सिफारिशवादऔर छिछले ज्ञान के कोहरे के माध्यम से वास्तविक प्रकाश से वातावरण को आलोकित करने से रोक रही है। दम्भी और स्वकेंद्रित टापरीकरण व्यवस्था हर प्रकार से मौलिक विचारों का हनन कर रही है। वास्तविक विकास हेतु मौलिक अभिव्यक्ति को आगे लाना होगा और विभिन्न धाराओं की विचारों के निषेचन द्वारा उन्हें प्रगतिशील बनाना होगा। समानता तभी आएगी और यह हमेशा याद रखना चाहिए कि जो उच्च है वो सदैव उच्च रहेगा। और उसी स्थिति में प्रतिभा एवं मौलिकता किसी मोहर, अंकतालिका या प्रशस्तिपत्र कि मोहताज़ नही रह जायेगी। ‘मार्क्स’वाद (‘Marks’ism) तभी प्रतिभा और उसके यथार्थपरक परिणामों के लिए रास्ता छोड़ेगा। और अंततः तभी विशुद्ध चेतना का संचार होगा।
अशांत

3 thoughts on “टापर (TOPPER)

  1. brilliant absolutely..once agian i think u have succeeded to deliver ur thoughts in a beautiful way….most importantly the language was really excellent and enhanced the effect of the message that was deliverd by u….the thoughts are really novel and do not have the earlier certain lacknesses of wiring style or hackneyedness…it was really fresh and deliverd the message quite clearly and in a lucid manner…..i agree with u that our education system is definitely in a fix and no one in particular is taking any furthur initiative to improve it or least do anything at all……

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  2. fascinating, refreshing, subtle, original and lots more adjectives to add on in the elegant style of presentation. The truth which u have revealed is really the order of the day. Our education system needs a revolution, moreover, the mentality of the people should be changed. The distinction between 'scoring marks' and 'attaining knowledge' should be appreciated.

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