एक दिवस एक जीवन का
विभिन्न रंगों का समन्वय
ऊपर से बस खुशी दिखे
पर भीतर मानव पराभव है
ये बात है उस जीवन की
जिसकी सुबह औरों की रात है
औरों की सुबह उसकी रात है
हम मानव है, ये बड़ी शर्म की बात है।
वीभत्स रूप वासना का
पदार्पित उस प्रांगन में
पतन होता चरम पर
उसका साक्षी वो प्रांगन है
पुरूष वही जो वास्तु वास्तुसे
निर्मल प्रेम को कहता पाखण्ड है
और स्वयं वो वासना हेतु
एक नारी आत्मा करता विखंड है।
जग के इस बाज़ार में
हर चीज़ का जब मूल्य है
मानव ने अँधा होकर
बंधकर तुच्छ भावनाओं में
कुछ ऐसा है कर डाला
चूर नशे में हो हाला
उस भावना को भी ख़रीदा
सहस्त्र काल से जो अमूल्य है।
नारी है पर्याय प्रेम का
उदगार जिसके निश्छल हैं
परिभाषित क्यों है सीमा
जिसका अतित्व स्वयं अनंत है
विभिन्न रूपों की जो दाता है
स्त्री ही भार्या स्त्री ही माता है
विदित है ये सत्य जीवन का
मानव तब भी नारी चीत्कार में मग्न है।
हम मनुजों ने स्वयं सुविधा हेतु
इन कुप्रथाओं को निर्मित किया है
वो हम ही है है जिन्होंने जग में
कसी को बही किसी को वेश्या रूप दिया है
असमानता का उद्भव भी है हमी से
इश्वर सृष्टि को हमने दूषित किया है
समानता का संदेश देती प्रकृति को
हमने ही माता से कुमाता किया है।
हर नारी आज सशंकित है
हांय! समाज कितना कलंकित है
बाज़ारों में जब देह बिकती है
किसी के घर तब रोटी सिकती है
एक नारी जो दुखों से पिघलती है
वाही एक कोठेवाली से चिढ़ती है
ये न कभी वो सोचती है की
बदनाम गली उसके ही घर से निकलती है।
अशांत