दुःस्वप्न

मुँह में दाँत नहीं हैंरोटी भाग रही हैछत उड़ रही हैनींव डूब गयी हैबैंक पैसे निगल रहा हैआलस प्रखर हैशब्द खो गये हैंहँसी सो गयी हैरूंदन जग रहा हैस्मृतियाँ आतातायी हैंनींद विरक्त हैमन अनुरक्त हैप्रेम अनाथ हैतुम भी नहीं हो;जीवन एक दुःस्वप्न हैएक तसल्ली है बसजैसा भी हैएक स्वप्न है! – प्रशान्त

काला काँच

रात की काली चादर पर नाम तुम्हारा बनाना है तुम्हारे दिल की दुनिया में छोटा सा घर बनाना है प्यार हमेशा था मुश्किल मज़हब एक बहाना है किसे महलों की दुनिया में घर मिट्टी का बनाना है   कोनों पर रहते हैं जो पूँछ उनकी कुछ नहीं बहुत कुर्बान हुये आशिक़ अब ज़ाहिद बनाना है जबContinue reading “काला काँच”

अनजान शहर

उस अनजान शहर कीअनजान गली मेंबीच के एक घर मेंजो न मेरा था न उसकाबंद था सब,सिवाय उस खिड़की केजिस से छन करधीमी होती सूरज की किरणउसके चेहरे पर पड़ करफिर से ज़िंदा हो जाती थी ,उस मुलाकात की तरहजिसे होना बहुत पहले थापर हुयी आज थी। वो दे देती थी भ्रमजीवन काउस भावना कोजोContinue reading “अनजान शहर”

I matter no more

The lines on your bodyWere written by my touch,When you will grow oldThe wrinkles on your cheekWill be relic of early morn caress Which I could only do once. Oh dear! You chose to leave meLike the winter SunLittle warm little unsatisfiedThe sultry glint of your eyesStill exists as embers in my heartI wish IContinue reading “I matter no more”