छुटपन में सुंदर लगने वाली हर चीज़
खो देती है पढ़-लिख कर
अपनी सुंदरता और अपने आप को।
छत की सुलाई
चोट की रुलाई
नानी की बात
टूटा हुआ दाँत
बेफ़िक्री का हाथ
बिन बिजली की रात
बचपन की रेल
साईकिल के खेल
न हारने का डर
न जीतने का अंतर;
ये सब तो खो गया पढ़-लिख कर
ना जाने क्या मिला बड़े हो कर!
बचपन की दोस्ती ही अच्छी थी
सोनल के साथ,
नहीं वो सुकून
प्यार में पकड़ किसी का हाथ।
जिस पोटली में रखे थे
कुछ शब्द छुपा कर
कुतर गया उसे
बड़प्पन चूहा कल रात,
बड़े होकर जो खुश कहीं और
हो सके तो वो शब्द लौटा दो;
बचपन तो फिर नहीं आयेगा
मन का छुटपन ही लौटा दो।
क्योंकि,
छुटपन में सुंदर लगने वाली हर चीज़
खो देती है पढ़-लिख कर
अपनी सुंदरता और अपने आप को।
– अशान्त