काला काँच

रात की काली चादर पर नाम तुम्हारा बनाना है
तुम्हारे दिल की दुनिया में छोटा सा घर बनाना है
प्यार हमेशा था मुश्किल मज़हब एक बहाना है
किसे महलों की दुनिया में घर मिट्टी का बनाना है  
कोनों पर रहते हैं जो पूँछ उनकी कुछ नहीं
बहुत कुर्बान हुये आशिक़ अब ज़ाहिद बनाना है
जब बोसे की बात चले वो वाइज़ बन जाते हैं
उनके झूठे वादों में कुछ को सच्चा बनाना है
जब कहना था कुछ अपना कान हमारे सच्चे थे
उन टूटे हर्फ़ों से ही हमें अच्छी ग़ज़ल बनाना है
जिसमें दिख जाते थे तुम वो आईना अंदर है
जिसमें कोई न दिखे वो काला काँच बनाना है
जिस शख़्स को छुआ नहीं अपना बनाने को
दूर सही उस शख़्स को रफ़ीक अपना बनाना है
याद उनकी सो जाती अगर तो सो जाते हम भी
क़ज़ा पर भी न पाये घर ऐसा अपना बनाना है
बिखरा मेरा साया जिसकी तकदीरों में
उसकी लकीरों से अपना मुक़द्दर बनाना है
– प्रशान्त 

Leave a comment