अनजान शहर

उस अनजान शहर की
अनजान गली में
बीच के एक घर में
जो न मेरा था न उसका
बंद था सब,
सिवाय उस खिड़की के
जिस से छन कर
धीमी होती सूरज की किरण
उसके चेहरे पर पड़ कर
फिर से ज़िंदा हो जाती थी ,
उस मुलाकात की तरह
जिसे होना बहुत पहले था
पर हुयी आज थी।

वो दे देती थी भ्रम
जीवन का
उस भावना को
जो न ही कभी जन्मी थी
और न मरी थी कभी,
अज्ञेय सा बैठा मैं
ना जाने क्यों ढूंढ रहा था
अपना आराध्य
जिसे पूज सकूँ
कर सकूँ निश्छल प्रेम,
जो रहते हुये संसार में
भाव दे मुझे भक्ति का। 

निर्झर बहते शब्द
आज न थे,
मेरे भावों की अभिव्यक्ति
पर वर्षों की अकुलाहट
चल पड़ी थी सब बांधों को तोड़
मिलने स सागर से
जो मुझ में ही कहीं खो गया था।

हमेशा सा, मेरा उस क्षण भी 
कोई आधार नहीं था,
उस पल भी नहीं
कमज़ोर पड़ा था जब सूरज
उस जाली के सामने
परिश्रांत, निशक्त, असहाय!
वो कोमलता थी उस चेहरे की
चमक खिलखिलाते दाँतों की
टकराकर जिनसे सूरज ने
अपना मान बचाया था।

ना पाने की कोई अभिलाषा
ना देने का कुछ सामर्थ्य,
फिर भी मैंने
उस किराये के कमरे में
छोड़ा था अपने शब्दों का  भार
छोड़ी थी अपनी उपस्थिति
जो ना जाने कैसी थी?

लौटा बहुत कुछ था ले कर
कुछ दिया या नहीं
अब तक पता नहीं;
 वो क्षण अब थाती है मेरी
पर सोचता हूँ,
मेरे छूटे शब्द और
मेरी उपस्थिति
क्या उसे समझ आएंगे?
जो आयेगा उस कमरे में रहने
तुम्हारे चले जाने के बाद!

सफ़ाई के नाम पर
झाड़ेगा मेरे शब्दों को
फिर पोछेंगा मेरी उपस्थिति को,
हाँ छोड़ देगा तुम्हारी हँसी
और चुप्पी भी
क्योंकि, वो निश्छल थी।

– प्रशान्त 

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