आठ गुना आठ

आठ गुना आठ का कमरा,
कोने में रखी मेज़
जिस पर फैली है
सालों की मेहनत
जिसका न तो कोई रंग है
न कोई आकार
और न ही कोई अस्तित्व;
बेतरतीब सी चिढ़ाती है
उसके अस्तित्व को जो
बिस्तर पर पड़ा हुआ
पन्नों और सपनों में
झूल रहा है।

आख़िर क्यों है इतना कठिन
उस खुले दरवाज़े से भाग जाना
न जाने किसने रस्सी से
किस पाये से
उसके पाँव बाँध दिये हैं?

– प्रशान्त

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