ये साथ-साथ की कसमें
ये साथ-साथ की रस्में
ये साथ-साथ की बातें
ये साथ-साथ की रातें
ये साथ-साथ का रासें
ये साथ-साथ की सांसें
ये साथ-साथ की आँहें
ये साथ-साथ की बाँहें
ये साथ-साथ की पूजा
ये साथ-साथ कोई दूजा
ये साथ-साथ का सच
ये साथ-साथ का झूठ
ये साथ-साथ का मर्म
ये साथ-साथ की शर्म
ये साथ-साथ का क्रम
ये साथ-साथ का भ्रम……
कुछ सच भी है क्या साथ-साथ में
या चलचित्रों की शोभा है?
कुछ तत्व भी है क्या साथ-साथ में
या सजावट की शोभा है?
ये साथ-साथ की अखंड ज्योति
क्या कभी नहीं विफल होती?
ये साथ-साथ की धुर चुनौती
क्या कभी नहीं विफल होती?
क्या लड़ते हैं दो प्रेमी
जो सत्य प्रेम है उसके लिये
या जो सबसे आसाँ है
बस उसे प्रेम कह देते हैं?
ये अखंड एकपक्ष इकलौता
जो प्रेम कभी कहलाया था
पुस्तक के हर पृष्ठ पर
जो सुंदरता से छाया था,
क्या जीता है वो इस जग में
क्या लेता है वो कभी श्वास
या फिर रहता विरह-ह्रदय
बन कर सनातन उच्छवास!
और नहीं खड़ा जो साथ-साथ
नहीं दे विपदा में आलंबन,
और नहीं हृदय में साथ-साथ
ले छद्म-नैतिकता का अवलंबन,
और नहीं बोलता साथ-साथ
कर लेता है जो अनबन;
फिर क्यों आया था साथ-साथ
फिर क्यों रोया था साथ-साथ
पास नहीं तो दूर सही
फिर क्यों सोया था साथ-साथ!
प्रेम पुल्लिंग न होता है
और न होता है स्त्रीलिंग
प्रखर मूक होता है वो
ये उसका मूल चिन्ह,
जो एक ओर से चलकर
सागर से तर जाता है
बिन डोरी पकडे कोई जो
पहाड़ पर चढ़ जाता है
बिन पूजा बिन रस्मों बिना
ईश्वर तक चला जाता है,
जो होता है ऐसा प्रेम
बसता है एकल रूप में
तपता है एकल रूप में ,
मूल सर्जना की अभिव्यक्ति
कभी आती नहीं साथ-साथ
कभी जाती नहीं साथ-साथ।
ये साथ-साथ के सारे भ्रम
समय के तट से टकराते हैं
ऊँची -ऊँची लहरों जैसे
निशक्त हो टूट जाते हैं।
ये साथ-साथ की प्यारी बातें
ये साथ-साथ की न्यारी बातें
ये साथ-साथ के मधुर गीत
ये साथ-साथ की प्रीत
ये साथ-साथ का झूठा सच
ये साथ-साथ का अधूरापन ………
– प्रशान्त