सर्दियाँ निष्ठुर होती हैं-
गरीबों के लिये
बच्चों के लिये
बूढ़ों के लिये
जानवरों के लिये
जो दूसरों पर निर्भर हैं
उनके लिए।
गरीबों के लिये
बच्चों के लिये
बूढ़ों के लिये
जानवरों के लिये
जो दूसरों पर निर्भर हैं
उनके लिए।
आ जाती है निर्भरता कुछ
प्रेम में भी,
हर बात बताना
तस्वीर दिखाना
जिस पर कोई भी ना हँसे
उस बात पर हँस जाना
जो दुनिया देती है
उस से इतर नाम से बुलाना
देर से सोना
फिर जल्दी जग जाना;
एक दूसरे की
आदत सी बन जाती है
फिर अचानक कोई जाता है
बिन दूध के चाय
काली पड़ जाती है।
ऐ मेरी प्रेमिका!
मैंने नहीं की प्रत्याशा
तुमसे कभी प्रेम की,
मेरे हृदय का दुर्ग
घिरा है उन दीवारों से
जिनके एक तरफ कवितायें
दूसरी तरफ खाली पत्थर हैं,
क्या इतना कठिन था
देना मुझे आत्मिक स्वीकृति
और इतना आसान मुझे बलि देना
अपनी नैतिकता के लिये?
जितनी भी ऊँची रहो तुम
अपने विचारों में
नैतिकता के पैमानों में
दुनिया के प्रासादों में
जीवन के आमोदों में ,
सत्य यही है कि तुम
सर्दी की तरह
ठंडी और निष्ठुर हो!
– प्रशान्त