जानते हो

शेखर (परिचय के लिये क्लिक करें) एक समकालीन संभावना हैं (छाते में घर की सुंदर सम्भावना)जो भावों को शब्दों की कूची से कागज़ों पर उकेरती हैं। कविता क्या है? इस पर कई निबंध लिखे जा चुके हैं पर कोई अंतिम निष्कर्ष ना निकल पाया है ना निकलेगा क्योंकि सतत परिवर्तनशील मानव भावनाओं को परिभाषाओं और विश्लेषणों में नहीं बाँधा जा सकता। इसलिये बाज़ारवाद के युग में स्वशिक्षित भाव-प्रेषक/कवि को भी समाज को जगह देनी होगी अन्यथा कला पुस्तकों में ही मृत हो जायेगी। शेखर द्वारा रचित ऐसी ही एक प्रयोगात्मक अकविता जैसी कविता जो कि हमारे भावों को उद्वेलित करती है और अनजानेपन में अपनों को ढूढ़ने के लिए प्रेरित करती है आपके अवलोकन हेतु प्रस्तुत है –

जानते हो,
जितनी बार तुमने मुझे छाता साथ रखने के लिये टोका है 
उतनी ही बार मैं जान बूझकर बिना छाते बाहर निकलती हूँ, 
उतनी ही बार बारिश में तुम छाता लिये बस स्टैण्ड पर आते हो
पर न जाने क्यों एक ही छाता लाते हो! 
जानते हो,
उस एक छाते में सिमटा रहता है मेरा छोटा सा घर
जिसकी देहरी के बाहर पानी गिरता है आती हैं आँधियाँ,
मेरे कंधे के साथ तुम्हारा हाथ भी भीग जाता है 
जिस से तुम मुझे अपनी ओर खींचते रहते हो। 
जानते हो,
तुम्हारे बदन से बारिश की महक आती है 
मेरे इंतज़ार में जो सिगरेट तुमने पी थी-
उसका धुआँ अब भी तुम्हारे कॉलर पर टंगा हुआ है 
और मेरी साँसे उसके सोंधेपन में लिपटी रहती हैं।
जानते हो,
तुम्हारी हड़बड़ाहट में पहनी हवाई चप्पल 
मिट्टी के छींटे उड़ाती है दाग बनाती है 
कुछ एक दाग मेरे दामन पर भी पड़े हैं 
झिड़क ज़रूर देती हूँ तुमको पर नहीं छुड़ाती दागों को।
मैं जानती हूँ,
ऐसे भीगते-भागते आना तुम्हे ज़रा भी पसंद नहीं 
बार-बार झुंझला कर यही जताते रहते हो,
हाँ, जब भी बारिश होती है 
तुम फिर छाता लेकर आ जाते हो,
ना मैं कभी अपने पास छाता रखती हूँ 
ना तुम कभी दूसरे छाते के साथ आते हो 
एक बात बताऊँ-
ये अकेले छाते में अकेलापन नहीं लगता। 
– शेखर 
   

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