बढ़ई

आज घर पर बढ़ई  आया है
मरम्मत करने कुछ अलमारियों की
जिन पर रखी किताबों में
सिर्फ़ हर्फ़ नहीं ,
पुराने फूलों के निशान
टॉफी के रैपर
कुछ पुराने टिकट
कुछ भूले हुये नाम और
कुछ यादें रखीं थीं।

बढ़ई बुज़ुर्ग हैं
इसलिये आप हैं
उनके ऐनक पहनने में
कुछ ऐसी कशिश है
जो तुम्हारे रे-बैन में नहीं,
चेहरे पर है झुरमुट सफ़ेद बालों का
जिस पर बाकी हैं
जवानी के कुछ काले निशाँ,
हाँ, उनकी आँखें भी
तुम्हारे दिमाग से तेज़ हैं!

वो रंदा मार कर
जो निकाल रहे हैं खुरचन
चिकनी समतल हो रही है
बेतरतीब सी ज़िन्दगी;
काश! वालिद भी होते बढ़ई
फिर बना देते
बिगड़ी हुयी ज़िन्दगी।

बढ़ई कुछ बोल नहीं रहे
बस उनकी हथौड़ी
कर रही है ठक-ठक, और
बोल रही है उनकी कारीगरी
बनी हुयी अलमारी की चमकती सतह से।

क्या टूटी-बिखरी ज़िन्दगी भी
फिर से बन सकती है नयी?
क्या मिल सकता है हर किसी को
अपने जीवन में एक बढ़ई?

– प्रशान्त 

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