माँ ने बचपन में जो ककहरा सिखाया था
वो अभी तक याद है
वहाँ से लेकर अब तक
और कितना कुछ भूल गया,
तब शायद बिना बहस किये
बिना ज्ञान के घमण्ड के
बात मानी थी उनकी मैंने।
मैं आज भी देर-सवेर
मान ही लेता हूँ आपकी बात
बस तब तक मेरा दिल
छिल चुका होता है,
मेरे मतभेद आपसे नहीं माँ
विचारों के होते हैं
प्राचीन-अर्वाचीन का वही द्वंद!
छोटे में गलत बोलने पर माँ
आप मार देती थीं ओंठ पर
अब ऐसा क्या हुआ
आपका हाथ क्यों नहीं उठता?
माँ अब कुछ बोलिये नहीं
सब ठीक कर दीजिये
फिर से मैं आपकी गोद में लेटा हूँ।
माँ आप गलत नहीं कहती थीं कुछ
मैं बस समझ न पाता था,लगता था
हल हो जायेंगे सब प्रश्न
बस किताबों से,
किताबें दुनिया सी नहीं थी
दुनिया भी किताबों सी नहीं
हाँ माँ, आप फिर सहीं थी, मैं गलत।
– प्रशान्त