प्रस्तुत पंक्तियाँ मेरी मित्र जो कि उम्दा लेखिका होने के साथ एक उम्दा सोच की पैरोकार हैं उनके द्वारा लिखी गयी हैं. अभी तक उन्होंने अपना तख़ल्लुस नहीं ढूढ़ा है. तब तक उनका आग्रह है कि लैंगिक बाधाओं को तोड़ते हुए उन्हें “शेखर” कहा जाए। उनके इसी आदेश के अनुपालन में प्रस्तुत हैं मर्मस्पर्शी कविता “नया पैबंद। ” जी हाँ, टाट जैसी अपनी ज़िन्दगी को नए पैबंद तो हमेशा ही चाहिये। देखना बस ये है कि परिस्थितियों की ठण्ड को हमारे प्रयास किस हद तक रोक पाते हैं… आगे बढ़ते बढ़ते हम लापरवाही में पीछे बड़े बड़े सुराख बनाते चले जाते हैं, जिसमे से रिश्ते तो गिरते ही हैं कभी कभी हम खुद भी ख़त्म हो जाते हैं। पर उम्मीद यही है कि नया पैबंद किसी न किसी दिन तो काम करेगा ही…
मेरी चादर पर फिर से एक पैबंद लगा है,
मेरी चादर पर फिर से एक पैबंद लगा है,
एक नये सूराख को बड़ी मेहनत से बंद किया है।
अम्मा की पुरानी सूती साड़ी की कतरन,
बापू की बंदर टोपी की कुछ उधड़न,
मढ़ैया वाली अजिया के मुट्ठी भर बताशे,
पिछली दो दिवाली के सीले हुए पटाखे,
टूटे हुए गुल्लक की बची हुई मिट्टी,
कोने तक भरी हुई एक पुरानी चिट्ठी,
स्कूल के स्वेटर के उभरे हुए फाहे भी नोंच लिए थे,
और इन सब को मिला कर मैंने ये पैबंद बनाया है।
मेरी चादर अब फिर से भर गयी है,
फिर से गुनगुनी गर्माहट देने लग गयी है।
– शेखर