चलो सब अदालतें बंद कर देते हैं!

अलसाती दिसंबरी ठंडी में

जब कोहरा धूं-धूं उड़ता है
रातें  लम्बी होती हैं 
सूरज जब देर से चलता है 
उन्हीं सुबहों में जब   
मखमली कंबलों में 
पैर हमारे सिकुड़ते हैं 
सिर तकियों में धंसते हैं 
कोयल भी धीमे गाती है 
नींद भी धीरे जाती है,
ऐसी सुंदर दुनिया में 
आखिर क्यों जिरहे होती हैं?
क्यों रोज़ अदालते लगती हैं?
क्यों ये झगड़े होते हैं?
क़ानून की ज़रूरत पड़ती है!
छोटा जीवन है प्यार करो 
सबके आगे इज़हार करो 
इतना कुछ है करने को 
इतना कुछ है जीने को 
कुछ बोलो कुछ बात करो 
न किसी पे कोई आघात करो 
छोटी-छोटी सी बातों को 
भूलो बिसरो ना याद करो 
इन ठंडी-ठंडी रातों में 
कड़वी जो हैं उन बातों में  
प्रेम का रस भर देते हैं 
सब कमियों को हर लेते हैं
गले मिलो अब यारों तुम
सब अदावतें अब ख़त्म करते हैं    
चलो सब अदालतें बंद कर देते हैं!
– प्रशान्त

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