धुआँ है वक़्त

धुआँ है वक़्त
तुम्हारे होठों से जो निकला था
कुछ हवा ने चुरा लिया
कुछ रखा है हमने सँभाल के।

उस भीड़ में जब
कोई न देखता था किसी को
मैने देखा काजल से बने
तुम्हारे आँखों के चाँद को।

बाज़ार का शोर
थम सा गया जब अनजाने में
गुनगुना दिया तुमने कुछ
जो किसी और ने सुना नहीं।

तर्क ख़त्म कर दो
विश्लेषण ज़रूरी तो नहीं
कुछ मामलों में कहती हो तुम
विश्वास अंधा ही सही है।

किसे शौक बुत बनने का
ख़्याल हैं दिल बहलाने के
आँखों में हँसी बन चमकता है जो
उनमें बसा हमें भी गुलज़ार कर दो।

-प्रशान्त

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