स्वप्न-हन्ता

जो लौट गया घर अपने
लेकर टूटे सपनों की गाँठ
क्या लौटेगा उसका यौवन
हफ़्ते में दिन जिसके आठ।

वो सूखे होंठ पथराई आँखें
बोले चुप चुप में ही हर बात
कब तक सुबह की राह देखें
जब इतनी लंबी हो रात।

उपक्रम जीवन हो जाता है
लंबा जब हो जाता संघर्ष
आशा फिर भी बंधी है रहती
कभी तो होगा उत्कर्ष!

अपराधी है कौन बताये कौन
जब सब झेल लिया उसने
उसे दंड से क्या लेना देना
अब सब झेल लिया उसने।

माँ की पूड़ी बनती बोझिल
अपेक्षा से ममता जाती हार
पिता भी बनते आशामूर्ति
उनका खुद का क्या आधार?

वो क्या है कौन है कैसे है
ये पूछे किस से हाय?
फलरहित कर्म करे वो कैसे
कौन उसे बतलाय?

पाप-पुण्य की गठरी में
किसका कौन सा स्थान
स्वप्न-हन्ता न बनना भैया
न रहेगा नामो-निशान।

– प्रशान्त

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