सामने दालान में कई सालों से खड़े पुराने पीपल के पेड़ में फिर से नये पत्ते आ गये हैं। किसलय नये पत्तों को तो ही कहा जाता है। नयी सोच भी किसलय हो सकती है और नया जीवन भी किसलय हो सकता है। अंतर बस इतना है कि किसलय वार्षिक या किसी भी सामयिक अवधि में पेड़ों को सुशोभित कर देते हैं। जीवन इस तरह के किसी निश्चित कालखंड में ना तो बंध पाता है न नया हो पाता है। कर्म और भाग्य के अधीन जीवन बस चलता जाता है। मनुष्य को जीवन और उसके सभी सहभागी तत्वों का अपने अधीन होने का आभास होता है। यह आभास भी यथार्थ के धरातल पर गिरते ही या तो टूट जाता है या फिर भाप बन कर उड़ जाता है।
उस दिन भी तो ऐसा ही हुआ था! जलती दुपहरी में वो चेहरा मरीचिका की भांति होते हुये भी नहीं था। सरलता से पाए जा सकने वाले ना जाने कितने ही अनुभव एक समय के बाद दुष्प्राप्य हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसका उत्तर मानव जाति मनोविज्ञान से लेकर रीतियों तक सब जगह ढूंढ रही है।
मनुष्य यह कदाचित भूल जाता है कि गोताखोरों को समुद्र से अधिकतर खाली हाथ ही वापस आना होता है। हम भी खाली हाथ वापस आ-आकर थक चुके हैं। हमें नहीं पता कि कब संतुष्टि की सीपियाँ हमारे हाथ आयेंगी। हमें नहीं पता कब हमारे दरख्तों में भी चिकने और चमकदार नये पत्ते आयेंगे!
एक सवाल जब देखो तब चिढ़ाता रहता है – “क्या रेगिस्तान में भी नये पत्ते आते हैं?”
सामने वाले पीपल पर सुबह कोयल कुछ गा रही थी। नये पत्ते भी झूम रहे थे। देखने वाला अपनी कातर निगाहों और डूबे हुये मन को संभालने का निरंतर प्रयत्न कर रहा था। किन्तु, हमेशा की तरह उसे आज फिर कुछ समझ नहीं आया। कोयल का गीत गणित के कठिन सवाल की तरह परेशान करता रहा। जीवन की प्रश्न-पुस्तक में आखिरी के पन्नों में उत्तर भी तो नहीं दिये होते।
इसी उधेड़-बुन में हम आगे बढ़ने की बजाय जीवन में पीछे चले जाते हैं,और वापस आने के दरवाज़े एक के बाद एक बंद होते जाते हैं।
काश! कुछ ऐसा होता कि हर ठूँठे पेड़ में फिर से नये पत्ते आ जाते। फिर से कोई कोयल उस पर बैठ कर गीत सुनाती।
जड़ों से जुड़ी हुयी नवीनता ही जीवन को अर्थ प्रदान करती है।
क्या हमारे जीवन को अर्थवान बनाने वाले नये पत्ते फिर से आयेंगे? या फिर, हम भी जीवन जीने के उपक्रम में अंततः निर्जीव हो जायेंगे? उत्तर, ना जाने किसके पास है! पर है अवश्य!
– प्रशान्त