मैं वहां पहुँच न जाऊँ!

बात कुछ भी करने की होती
तो कब का कर लिया होता
कुछ न कुछ;
बात थी अपना सपना पूरा करने की
जिसे नापा था मैंने
उस दोपहर लन्च ब्रेक में
अपने क़दमों से
उस बंगले के पास 
जो मेरे कॉलेज के सामने था।

पर तुम नहीं समझोगे!
क्योंकि, मैंने किया है पाप
देख कर वो सपना
मध्यम वर्गीय आँखों से
और फिर चला नहीं
उस रास्ते पर
चल कर जिस पर
सब उस बंगले तक पहुँचते हैं।

गलती भी मेरी ही थी
जो मैंने की कोशिश
बिना किसी टैग के
एक ब्राण्ड बनने की,
जब तक तुम्हारे पीछे भीड़ न हो
कैसे अलग सोच सकते हो तुम
लोकतंत्र में?

कल फिर वहीँ से निकला
तो देखा मैंने
नयी चहारदीवारी घेर रही है
बंगले को
शायद उसे डर है
कि, कहीं
मैं वहां पहुँच न जाऊँ!

-प्रशान्त 

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