जब भी कोई मनुष्य
रखता है ऊंचा लक्ष्य
चलता है ऐसे पथ पर
जिस पर भीड़ नहीं
ऐसे में,
असफल होते ही
उसकी आत्मा बिल्ली हो जाती है
और,
टूट पड़ती हैं उस पर
समाज की अपेक्षाएं और ताने
कुत्तों की तरह;
कर देते हैं क्षत-विक्षत
इस सीमा तक
कि,
उसका कुछ भी नहीं रह जाता
न वो लोग जिसे वो समझता था अपना
न वो खुद!
रखता है ऊंचा लक्ष्य
चलता है ऐसे पथ पर
जिस पर भीड़ नहीं
ऐसे में,
असफल होते ही
उसकी आत्मा बिल्ली हो जाती है
और,
टूट पड़ती हैं उस पर
समाज की अपेक्षाएं और ताने
कुत्तों की तरह;
कर देते हैं क्षत-विक्षत
इस सीमा तक
कि,
उसका कुछ भी नहीं रह जाता
न वो लोग जिसे वो समझता था अपना
न वो खुद!
आईने में बनी उदास तस्वीर
उसकी नहीं
जो उसके सामने खड़ा है,
वो छद्म छाया है
उस भीगी बिल्ली की
जिसके सपने मर चुके हैं,
जो तलाश रही है द्वार
पुनर्जीवन के, जहाँ
सार्थकता हो उसके अस्तित्व की।
-प्रशान्त