सुलगता सपना और नीली बत्ती

लखनऊ शहर में क़रीब डेढ़ दशक पूर्व “राष्ट्रीय सहारा” नाम का समाचार पत्र अत्यंत लोकप्रिय था। वो समय था जब ‘सहारा’ अपने पूरे उफान पर था। तब उसे आज की तरह किसी भी आर्थिक सहारे की ज़रुरत नहीं थी। उसी अख़बार में नए जिलाधिकारी/डी एम की नियुक्ति की ख़बर जब भी छपती थी, एक नौ साल का बच्चा अत्यंत रोमांचित हो जाता था।

निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का इकलौता बेटा जब अपने पिता से पूछता था कि जिलाधिकारी क्या होता है, तो हमेशा यही जवाब मिलता था – डी एम मतलब बहुत बड़ा अफसर यानि ‘जिले का राजा। ‘ उस बाल मानस की अपरिपक्व बुद्धि की सीमा इतनी ना थी कि जिले के प्रशासनिक महत्व को वो किताब में इंगित एक तथ्य से ज़्यादा कुछ समझ पाता। इसीलिये नीली बत्ती लगी अम्बैस्डर ही उसके लिए डी एम/ शक्ति का चिन्ह एवं केंद्र दोनों बन गयी। शक्ति के उसी प्रतिमान से सभी प्रकार की तुलना होती थी । जब सभी गाड़ियाँ ट्रैफिक सिग्नल पर रुक जाती थीं, तब नीली बत्ती ही बिना रुके रास्ता बनाते हुए सनसनाते हुए निकल जाती थी। उस रुकी हुयी भीड़ में मैं भी पिताजी की बजाज चेतक पर आगे खड़ा ये सब देखता रहता था। आज लगता है कि उन्हें कितनी कोफ़्त होती होगी। शायद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी ने ऐसी परिस्थितियों के आलोक में ही ये पंक्तियाँ लिखी होंगी –

‘धक्का देकर किसी को

आगे जाना पाप है’

अतः तुम भीड़ से अलग हो गये।

‘महत्वाकांक्षा ही सब दुःखों का मूल है’

इसलिये तुम जहां थे वहीं बैठ गये।

‘संतोष परम धन है’

मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया।

मुख़्तसर ये है कि नीली बत्ती की सवारी हिंदुस्तान में बहुत कठिन है! जीवन में जो चीज़ें कठिनाई से प्राप्त होती हैं वही सपना बन जाती हैं। IAS भी मेरे जैसे लाखों छद्म युवाओं के लिए एक सपना ही है। और यह सपना एक दिन में नहीं बना। इस सपने का पोषण परोक्ष एवं अपरोक्ष अवस्था में कई प्रक्रियाओं से गुजरता हुआ अपनी पूर्णता को २२ वर्ष की आयु सीमा में प्राप्त कर पाया। लेकिन, था अब भी वो एक सपना ही और आज भी उसी रूप में बना हुआ है। अब उसके विकास के मापन का मानक तो नहीं पता, पर हाँ, सपना है बड़ा ज़ोरदार। क्या पता किसी देसी क्रिस्टोफर नोलन की निगाह इस सपने पर कभी पड़ जाये किसी दिन! जीवन की कई चाही-अनचाही राहों से होते हुये ये सपना एक ऐसे पड़ाव पर पहुँच चुका है जहां पर आसानी से, असफलता के अलावा और कुछ नहीं मिलता।

मध्यम-वर्गीय जीवन में महत्वाकांक्षा और शिथिलता, दोनों ही साथ-साथ चलते हैं। लक्ष्य को प्राप्त करने की दुर्दम्य अभिलाषा सदैव साथ रहती है, किन्तु उसको हासिल करने के लिये कर्म की शक्ति, जितनी प्रबल होनी चाहिए, उतनी हमेशा नहीं रहती।इसी कारण बड़े सपने, वो भी नीली बत्ती वाले सपने, ना तो जल पाते हैं और ना ही वो बुझते हैं। वो तो बस सुलगते रहते हैं-निर्बाध और निरंतर!!

आख़िर क्या है इस सपने में जो लाखों जवान आत्माएं अपनी जवानी की आहुति इस यज्ञ में देने को सहज ही तैयार हो जाती हैं? ये जानते हुये कि प्रचलित सिद्धांतों के अनुसार बहुमत सदैव असफल छात्रों का होगा क्यों पेंग्विन की भाँति लाखों की संख्या में ज्ञान पुंज इस परीक्षा की चोटी से कूदने को तैयार रहते हैं? ये नशा नहीं तो और क्या है कि धौलपुर हाउस की चोटी पर अपना झंडा गाड़ने के सपने लिये, ना जाने कितनी पीढ़ियों ने स्वयं को निराशा के अंधकार में खपा दिया।

आधुनिकता ने ज्ञानार्जन के कई माध्यमों को जन्म दिया है। वो अपने उद्देश्य में किस स्तर तक कारगर साबित हुये हैं, ये एक बहस का विषय है। क्या भारत में समानता का उन्मीलन संविधान से निकल कर समाज की जड़ों तक पूर्ण रूप से हो चुका है? क्या हम मुफस्सिल इलाकों के साधारण महाविद्यालयों के स्नातकों की तुलना दिल्ली विश्वविद्यालय के आभिजात्य महाविद्यालयों के स्नातक से कर सकते हैं? नहीं! और यहीं पर असमानता की नींव पड़ती है; एक ऐसी खाई की जिसके दो सिरों को कोई भी लकड़ी का पल्ला जोड़ नहीं पाता। और नीली बत्ती वाला सपना सुलगता रहता है! इस स्थिति की वीभत्सता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह सपना अपने आस-पास पनपने वाले सभी सपनों को निर्ममता से जला डालता है। पर कम्बख़्त ये दिल भी आख़िर क्या करे, दुष्यंत कुमार की रचनाओं में अपनी शक्ति का स्त्रोत ढूंढने वाली आत्मा को GDP से टक्कर लेने की बड़ी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। और तभी दुष्यंत पीछे से फिर पुकारते हैं-

कौन कहता है

आसमान में सुराख़ नहीं होता

एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।

ऐसा ही एक पत्थर हमने तबियत से उछाल तो दिया है, पर वो आसमान में कब सुराख करेगा इसका कोई अंदाज़ा नहीं है। UPSC में मोक्ष का सिर्फ एक मार्ग है जो कि परीक्षा की वैतरिणी पार करने पर ही प्राप्त होता है। इसके त्रिस्तरीय तिलिस्म को तोड़ना कोई बच्चों का खेल नहीं है। वो भी तब, जब दाँव पर नीली बत्ती हो! किसी भी स्तर पर असफलता आपको फिर उसी धरातल पर ला पटकती है जहां से आपने इस दुर्गम यात्रा की शुरुआत की थी।

UPSC कभी-कभी तो द्रोणाचार्य जैसा प्रतीत होता है जो कुछ अर्जुनों को बनाने के लिए के लिये समानांतर ना जाने कितने एकलव्यों का सतत निर्माण करता चला जाता है। जनता के अँगूठे कटते चले जाते हैं पर उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि वो अपने बाल और सबसे उत्पादक समय ही नहीं खो रहे हैं बल्कि हर असफलता उनकी आत्मा को भी छलनी कर रही है। हाँ, इस प्रक्रिया का सकारात्मक पक्ष ये है कि अत्यंत कठिन जीवन जीने की शक्ति का अर्जन अवश्य हो जाता है। वो अंग्रेज़ी में कहते हैं न, ‘If you aim for the Moon, you will at least land on the stars’ शायद  इसी सुलगते सपने की गर्मी है जो ठंडी हो चुकी इच्छाशक्ति को भी गाहे बेगाहे जागृत कर देती है।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमने नये आयाम स्थापित करने की आदत ही नहीं डाली। हमने बस कुछ साँचे बना लिये हैं। जो उन साँचों में स्वतः समा गया या खुद को उस अनुसार ढाल लिया, वो ही सफल और महान है। जो यह नहीं कर पाया, उसके ख़िलाफ़ असफलता का एकपक्षीय निर्णय समाज द्वारा सुना दिया जाता है। किसी भी समाज के लिए यह एक विध्वंसक स्थिति होती है जहाँ पर साधन गंतव्य के आगे गौड़ हो जाता है। भौतिक विपुलता जब सफलता का एकमात्र पर्याय बन जाती है तो हमारी नैतिकता अपने समस्त आयामों में डगमगा जाती है। और तब शुरू होता है ऐसा पतन जिस में उत्थान की संभावना नगण्य होती है।

हमारी व्यवस्था दुर्भाग्य से एक कागज़ी व्यवस्था होती जा रही है जिसके जीवन की सभी अवस्थाएं कागज़ से शुरू हो कर कागज़ पर ही ख़त्म हो जा रही हैं। अगर ऐसा नहीं है, तो फिर क्यों हमारे यहाँ शिक्षा का एक न्यूनतम सहायक स्तर नहीं है? क्यों एक किसान आज भी सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाने को मजबूर है? भारत का शिक्षित युवा क्यों संशय और भय से व्याप्त जीवन जीने को अभिशप्त है?

मैं सर्वश्रेष्ठता की अभिलाषा करने का विरोधी नहीं हूँ। पर मैं सर्वेश्रेष्ठ की अंधभक्ति को निंदनीय मानता हूँ। अगर हम इस समाज का अभिन्न अंग हैं तो हमारी सफलता एवं असफलता भी सामूहिक होनी चाहिए। जब तक तुलना की दीवार नहीं गिरायी जायेगी, तब तक समाज में विभाजन की दृश्य एवं अदृश्य रेखायें रहेंगी और तब तक मानव के असीमित सामर्थ्य को हम बस कुछ परीक्षाओं और पैसे तक ही सीमित करते चले जायेंगे। यह हमारी मानसिक क्षुद्रता का प्रखर द्योतक है। कुंठाग्रस्त युवा इस व्यवस्था के सामने असहाय सा खड़ा है और न चाहते हुए भी संसाधनों पर अपने अधिकार जमाने हेतु उसी व्यवस्था का अंग बनने को विवश है।

अवश्य ही यहाँ पर कुछ सफल अपवाद भी हैं। किन्तु, वह प्रवृत्ति जो आम होनी चाहिये वह इसी विशेष रूप में ही प्रवर्तन में है। यह परिस्थितियां हमारे विकास और प्रगति के दावों पर एक अमिट सवालिया निशान खड़ा करती हैं। आख़िर हम कब और कैसे अपनी औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलेंगे? कब हमारा माई-बाप कोई व्यवस्था, सिस्टम या नीली-लाल बत्ती नहीं अपितु हमारा कर्म होगा?

इस दिशा में पहला कदम नीली-बत्ती सवारों को ही उठाना पड़ेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे यहाँ सफलता अवसरों की उपलब्धता पर बड़े स्तर पर निर्भर है। इसलिये अपनी सफलताओं में हमें उन असफलताओं का चित्रण एवं अनुभूति अवश्य करनी चाहिये जिनका कारण वो प्रतिभायें हैं जो या तो दबा दी गयीं या जिन्हें शबाब पर आने का कभी मौक़ा ही नहीं मिला। हां, इस क्रम में उनका लाल बत्तियों से टकराव अवश्य होगा, किन्तु संगठित प्रयास से वांछित सफलता भी अवश्य मिलेगी।

भयानक गर्मी में टिमटिमाते बल्बों में रट्टा लगाते हज़ारों/लाखों लोगों को अपनी क्षमता का मूल्यांकन करते हुये लक्ष्य-संधान करना होगा। समाज हमेशा से एकलव्यों के लिये कठोर ही रहा है। और एकलव्य की नवउदारवादी समाज में कोई जाति नहीं है। जिसका संसाधन पर कब्ज़ा है वही आज का अर्जुन है!

ऐसी परिस्थिति में लखनऊ वाले उस लड़के को अपनी समझ जिला का राजा होने से आगे बढ़ानी होगी। उस बदलाव की सार्थकता हालांकि तभी है जब नीली बत्तियां गाड़ी से उतर जायें और मानव संवेदना हमारे कार्यों और प्रयासों को मार्गदर्शित करे। विज्ञान के कई आविष्कार मानवीय संवेदना के परिणाम रहे हैं। ऐसे में सामाजिक क्षेत्र में संवेदनहीनता सिर्फ विध्वंस की जननी हो सकती है।

इल्म के पुलिंदों (डिग्री) से आगे जहान को तलाश करिये। क्या पता कोई नया सपना ही दिख जाये जो कि शीतलता प्रदान करता हो। नहीं तो सुलगने के लिये नीली बत्ती वाला सपना तो है ही…..

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