माँ वाली शर्ट की उधड़ी सिलन
जब सिली थी तुमने पहली बार
ना समझ आया था
तुम पास आयी थी या
माँ हुयी थी दूर
मैंने आज फिर वही शर्ट पहनी है
माँ आज भी नाराज़ है
तुम्हारा कुछ पता नहीं!
पलाश का वो फूल
जो उठा लायी थी तुम
अपने कमरे के सामने से
सिकुड़ गया था तुम्हारे हाथ में
जो लुगदी की तरह
बचे हुये डंठल लड़ाये थे हमनें
जीती थी तुम तब, आज भी
मेरा कुछ पता नहीं!
चल पड़ा था उस दिन
नदी पर खड़ा पुल
उसी ताल पर जिस पर
नाच रहीं थीं दो धड़कन
तुम ख़ूब बोली थी उस दिन
मैं चुप ही कह रहा था सब
आज भी सुनता हूँ वो सदायें
क्योंकि मैं अब बोलता नहीं!
कुछ गोल सा मेरे माथे पर
था बिंदी की तरह
बिना किसी रिवाज़ के
जो लग आया था
गोल घूम गया था मैं दुनिया
ठहरी थी तुम मुस्काते हुये
बहुत आगे जा चुके हैं
मैं अब बिलकुल चलता नहीं!
-प्रशान्त