संघर्ष

इलाहाबाद के छोटे कमरों में बड़े सपनों के साथ रहने वाले कई छात्रों के दुरूह जीवन को अभिव्यक्त करने  का प्रयत्न इन पंक्तियों  द्वारा करने का प्रयास किया है। आलोचना एवं टिप्पणियां आमंत्रित हैं। 
कल,
बाद आधी रात के 
जब सब कुछ सोया-सोया था,
तो जग रहीं थी 
बस मेरी आँखें 
हरहराता कूलर, और 
उसकी हवा में
फड़फड़ाते कुछ पन्ने,
ढूंढ रहा था जिनमे मैं 
अपना भविष्य,
अपना जीवन, जिसे जी तो रहा हूँ 
पर जीने की अनुभूति के बिना। 
सहसा तभी,
शोर भरे सन्नाटे में 
सुनाई दी खटखटाहट,
टाल दिया जिसे पहली बार
समझ कर जानी-पहचानी आवाज़ 
कूलर से प्लाई के टकराने की। 
लेकिन ये क्या!
यह तो है वो शोर नहीं 
जो मचता है रात भर 
माध्यम गति से 
अवांछित संगीत सा,
यह है खटखटाहट कुछ जानी सी 
जो आयी है मिलने पहली बार 
और लगता है उसने 
अपनी सारी उत्कंठा 
उँगलियों में भरकर
उतार दी हो
निरीह दरवाज़े पर। 
कुछ ठनका,
सुषुप्त मस्तिष्क में मेरे भी,
खुले दरवाज़े पर 
रात और सुबह के बीच 
यूँ कौन आया है?
और आया भी है 
तो बुला क्यों नहीं रहा
मुझे मेरे नाम से 
क्या है अभिप्राय 
यूं धड़ल्ले से 
खटखटाने का?
     
फेंक कर चादर नींद की 
यथार्थ से धो कर आँखें 
तथ्यों की दुनिया छोड़ कर 
थोड़ा सा साहस मोल ले 
चल पड़ा मिलने को 
उस जाने-पहचाने अजनबी से 
जिसकी आहट में आशंका थी!
देखा जब दरवाज़े के पार,
खड़ा था था बिम्ब 
थी आँखें लाल 
पसीने से तर-बतर,
पहने आधी बनियान,
आधी पैंट,
पथराई आँखों से देख कर 
भर कर मैंने लम्बी साँस 
पूछा, हलक से निकाल 
अटकी आवाज़,
“तुम कौन हो?’
 रुक कर उसने  थोड़ी देर 
निष्ठुर शांत चित्त के साथ 
बोला बस एक शब्द 
“संघर्ष”
जो था सारे जीवन का सार। 
-प्रशान्त 

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