बहुत दिनों से

बहुत दिनों से
मैंने देखा नहीं तुमको
और ना ही
सुनी तुम्हारी आवाज़
पर,
एक छाया धुंधली सी
है रेखांकित कहीं मन में
जिसमें दिख तो नहीं रही
पर खुल के खिलखिला रही हो तुम।

नहीं है उस छवि में
उत्तेजना का आवेग
और ना है
गर्मी प्रतिस्पर्धा की,
वो जो संचित है छवि तुम्हारी
चेहरा दिखता नहीं तुम्हारा
पर है उसमें आभा शीतलता की।

क्यों आवश्यक है?
सृजन किसी सम्बन्ध का
निजता को पाने को ,
बिना देखे
बिना बोले
और बिना छुये
क्या तुम मेरी नहीं हो?

-प्रशान्त 

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