इश्क़ इलाहाबादी

बाज़ारों की इस दुनिया में जब डूबी दुनिया आधी है,
जहाँ कहीं पर प्रेम कभी वादी तो कभी प्रतिवादी है,
उत्तर में भारत के बसती अलग कुछ आबादी है,
ज़रा गौर से पढना-समझना इसको,
इश्क़ का ये ख़ालिस “ब्राण्ड इलाहाबादी” है
                                          -प्रशान्त


      पूरी दुनिया की तरह मेरे शहर में भी “प्यार वाला दिन” हाल ही में मनाया गया. यूं तो मैं बदकिस्मती से शहर से बाहर था, पर मुझ में बसा हुया शहर मेरे साथ ही था. मैं कभी भी मोहब्बत का दिन मुक़र्रर करने से सहमत नहीं रहा हूँ,लेकिन बाज़ार की रवायत दिल और दिमाग को फरवरी के दूसरे हफ़्ते में कुछ ना कुछ सोचने को मजबूर कर देती है. और इसमें सबसे बड़ा हाथ रहता है शहर इलाहाबाद का. 

      शहर इलाहाबाद को जानने और समझने के लिये यहाँ कुछ वक़्त बिताना ज़रूरी है. कहते हैं कि जिसे इलाहाबाद स्वीकार कर लेता है उसे दुनिया स्वीकार कर लेती है. शायद मैं भी इसी स्वीकार्यता की खोज में यहाँ पर पैदा हुया. इस बात का कोई हलफ़नामा तो नहीं दे सकता लेकिन उम्मीद यही करता हूँ कि किसी ना किसी दिन इलाहाबाद मुझे भी स्वीकार कर लेगा. इसके पीछे का कोई कारण तो नहीं है किन्तु अवचेतन में कहीं ना कहीं वक़्त-बेवक्त ये विचार कौंध ही जाता है. शायद इसलिये, क्योंकि इलाहाबाद की हवा में सांस लेते लेते हमें भी इश्क़ को पाये बिना ही इश्क़ को जानने का कुछ गुमान हो चला है .

      इश्क़ और इलाहाबाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. ये धर्मवीर भारती जी की महज साहित्यिक कल्पना नहीं थी जिसने उन्हें इलाहाबाद के नगर देवता को कोई “रोमान्टिक कलाकार” घोषित करवा दिया था. और, ना ही ये कोई इत्तेफ़ाक है कि आज भी बदस्तूर इलाहाबाद में “गुनाहों के देवता” बन और बिगड़ रहे हैं. ये तो बस यहाँ की आबो-हवा का नशा है जो किसी न किसी रूप में आत्मा में घुलने के बाद विभिन्नता के साथ अभिव्यक्त होता है. ठीक वैसे ही, जैसे माँ का प्रेम स्वतः ही लोरी के रूप में जुबान पर आ ही जाता है.

      यूँ तो इश्क़ का रंग हर जगह एक होता है, लेकिन मेरी नज़र जहाँ तक देख पायी है, इलाहाबादी इश्क़ का रंग कुछ तो ख़ास है. प्रेम यहाँ भी और बहुत सी चीज़ों की तरह संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है लेकिन उसमे किसी ना किसी रूप में अनजानी सी मासूमियत बची हुयी है. ये बात और है कि ये मासूमियत कभी-कभी अभिव्यक्ति के समय कुरूप भी हो जाती है, किन्तु शुरुआती मासूमियत अब भी खाँटी इलाहाबादी मोहब्बत में दिख ही जाती है. ये विश्वास मेरी दिल्ली (या अन्य किसी बड़े शहर) की हर यात्रा के बाद और भी बढ़ जाता है. क्यों? ये मैं आप सबको बताता हूँ.

      इलाहाबाद की भौगोलिक एवं बौद्धिक स्थिति कुछ ऐसी है की उत्तर प्रदेश जैसे अत्यंत वृहद् राज्य में यह कई गतिविधियों का केन्द्र है. आज एनसीआर के निरंतर बढ़ते क्षेत्रफल ने भले ही हमारे सामने सांस्कृतिक चुनौतियां पेश की हों, लेकिन इलाहाबाद किसी न किसी तरीके से अपने अस्तित्व को बचाने में सफल रहा है. शिक्षा का केंद्र होने के नाते ये शहर हमेशा से युवा रहा है. हर युवा हृदय की भांति इलाहाबाद भी एक अजब पसोपेश में घिरा हुआ आगे बढ़ता जा रहा है. और यह पसोपेश सबसे मुखर रूप से झलकता है यहाँ के शिक्षा संस्थानों में जो कि कोचिंग सेन्टर से लेकर तक विश्वविद्यालय तक सुरसा की भांति विद्यार्थियों की भीड़ को निर्बाध रूप से निगलते जा रहे है. हर भीड़ का अपना अलग ब्रान्डेड चरित्र है. इस भीड़ के हर अंग का स्त्रोत चाहे जो हो लेकिन उसका आचरण अंततः इलाहाबादी रंग में रंग ही जाता है. हाँ, समय के बदलाव के साथ युवा हृदय की प्रखर प्रेमातुर अभिव्यक्ति में स्वाभाविक अन्तर तो आया है, लेकिन मूल भाव आज भी वही है, जिसने अनजान को ‘छोरा गंगा किनारे वाला’ लिखने को विवश कर दिया था. स्त्रीवाद की समर्थक छोरियाँ इस कथन का अन्यथा अर्थ ना निकालें इसलिये मैं सावधानी पूर्वक “छोरा/छोरी गंगा किनारे वाला/वाली” लिख दे रहा हूँ. आंशिक ही सही किन्तु दोनों लिंगों की सामजिक विभेदता का अंतर धीरे-धीरे दूर हो रहा है. प्रेम भी इस से अछूता नहीं है.

      इस बात को दावे से तो नहीं कह सकता हूँ लेकिन अपने आस पास जो देख रहा हूँ उसमें ये कहीं ना कहीं से परिलक्षित ज़रूर हो जाता है. वैश्वीकरण और बाज़ार के उदारीकरण ने जीवन के हर पहलू की तरह प्रेम को भी छुआ है. संचार के माध्यम बढ़ने से भी कल तक जो दिल में ही दबा रहा जाता था वो प्यार अब परोक्ष एवं अपरोक्ष रूप से सामने आ रहा है. चाहे वो त्वरित “एस एम एस” के माध्यम से हो या फिर फेसबुक के किसी रूमानी “टैग” से, प्रेम की निर्भीक अभिव्यक्ति के माध्यम बढ़े ज़रूर हैं. इस पर ये सवाल उठाना लाज़मी है की इलाहाबादी इश्क़ का ब्रांड किस रूप में अलहदा है? जी है, बिलकुल है!

      मुखरता ने इलाहाबाद में इश्क़ को मासूमियत से दूर नहीं किया है. मैं गलत हो सकता हूँ, पर पूरी तरह से नहीं! आज भी इलाहाबाद में आपको साइकिल सवार प्रेमी मिल जायेगे जो अपने घर से जल्दी सिर्फ इसलिये निकलते हैं कि अपने प्रेम-बिंदु को कॉलेज की बस में चढ़ते हुए देख सकें. आज भी इलाहाबाद में प्रयाग क्षेत्र की सुबह आपको इसलिए अलग महसूस होगी क्योंकि अपनी पिताजी की बाईक पर डरते-डरते अपनी अभिसारिका से मिलने के लिये रोज़ कोई ना कोई बहाने ज़रूर बनते हैं. इलाहाबाद में अब भी निस्वार्थ नज़रों वाली मोहब्बत कहीं ना कहीं पनपती है. ऐसी मोहब्बत जिसमें ना तो आँसू हैं ना हँसी, है तो बस एक हल्की सी टीस जो जीवन कई दबावों के बीच खुद के दिल में ही दबी रह जाती है. एक ऐसी टीस जिसे शायद ताउम्र कोई जुबान ना नसीब हो. पर इसका मतलब ये कतई नहीं कि इलाहाबाद आधुनिकता की दौड़ में कहीं पीछे छूट गया है. ये तो बस एक अजीब सी कशिश है जो इलाहाबाद की मोहब्बत को कुछ अलग बनाती है, नहीं तो ऑटो के ज़माने में रिक्शे पर घूमते जोड़ों का दिखना तो असंभव ही हो जाता. ऐसी अभिव्यक्तियों के लिए इश्क़ की “रेड बुक” बनानी पड़ जाती तो कोई बड़ी बात नहीं होती!

      घोर जेठ की दोपहरी में पोलो ग्राउंड में भी मोहब्बत की पहली सीढ़ी की सम्भावना एक इलाहाबादी दिल ही ढूँढ़ सकता है. और शायद ये इस शहर का ही जादू है की तमाम रुकावटों के बावजूद विश्वविद्यालय में “मधुबन” आज भी खिल और चहक रहा है. अब ये शोर चकवा-चकवियों है या प्रवासी पक्षियों का ये सोचने समझने की बात है!

      यही नहीं, नारी-प्रेम की जो उद्दात सुन्दरता इलाहाबाद में है उसका सानी शायद ही कोई दूसरा शहर हो. बरसों से दबाये हुयी आवाजें जब महिला छात्रावासों और कक्षाओं में पहुँचती हैं तो उनसे उमड़ने वाले संगीत की मधुरता को कहीं और ढूँढना किसी व्यर्थ प्रयास से कम नहीं है. पहली सीट पर बैठे हुयी वो आँखें जो कानों में पड़ती आवाज़ को देखने की लगातार कोशिश करते हुये अपने सीमा क्षेत्र का अतिक्रमण करती हैं, ऐसा शायद आज के नीरस एवं मुखरता भरे दौर में इलाहाबाद में ही संभव है. कोमलता यहाँ पर दुर्बलता का पर्याय नहीं है. वक़्त आने पर शायद इश्क़ से मज़बूत कुछ नहीं होता. और प्रेम सिर्फ स्वीकार करना ही नहीं होता, सच्चा प्रेम आदरपूर्वक अस्वीकार्यता भी झेलना जानता है. शायद गंगा का पल-पल बदलता मार्ग ये सहनशीलता इलाहाबाद को नैसर्गिक रूप से देता है.

      संगम तट पर पंथों की बहुतायत के बावजूद प्रेम-पूजा भी हो ही जाती है. कई लोग इसे संस्कारहीनता भी कह सकते हैं, लेकिन शायद प्रकृति के पावन सानिध्य में उसमें निहित  उन्मुक्तता प्रेमी हृदय को भी उद्वेलित कर देती है. वो भी एक ऐसे समाज में, जहाँ पर प्रेम धर्म ग्रंथों में विभिन्न लीलाओं में सहेजा गया है लेकिन उसका प्रयोग समाज में वर्जित है. शायद इस कारण कि बरसों से बनायी हुयी पितृसत्ता और एक वर्ग का आधिपत्य कहीं समाप्त ना हो जाये. लेकिन निराला के इस शहर को भी तोड़ निकालने का हुनर खूब मालूम है. नित नये रास्ते निकल भी रहे हैं. असफलताओं की बहुतायत में सफल प्रेम के कई किस्से अब मध्यम-वर्ग में भी सुनाई दे रहे हैं. और यकीन मानिये ये बस इलाहाबाद का ही कमाल है, अन्यथा जहां शादियाँ सामाजिक रीति अधिक और आत्माओं का मिलन कम है, वहाँ पर अभी भी निश्छल प्रेम, किसी भी मात्रा में सही, आखिर पल बढ़ तो रहा है.

      प्रेम के रूप बदलते रहेंगे लेकिन मूल भावना वही रहेगी. बस यही उम्मीद करता हूँ कि इलाहाबादी इश्क़ बदलते समय के साथ अपनी जड़ो से जुड़े हुये नित नये प्रतिमान रचता रहे. इस प्रक्रिया के फलस्वरूप शायद एक दिन ऐसा भी आये जब किसी “बर्टी” को प्रेम की अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाने पर हत्या नहीं करनी पड़ेगी. और कोई “सुधा” विरह-वेदना में नहीं जलेगी. सफलता की नयी परिभाषा लिखने का वक़्त अब आ चुका है, जहां पर भौतिक जगत की सफलता और हृदय का मूल आनंद विभक्ति नहीं अपितु एक संधि के रूप विद्यमान होगा. आइये इलाहाबाद के इसी इश्क़ को जो हम अपनी गंगा माँ से लेकर यहाँ की हर चीज़ से करते हैं, उसे हम जहां भी जाये साथ लेकर जाये और सबको उसका कायल बनाते रहें. क्योंकि, इश्क़ का ये “ब्राण्ड इलाहाबादी” है!
         
          
       

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