दोहे प्रेम के

मैं प्रेम के लिये किसी भी एक दिवस निर्धारण वाले विचार से सहमत नहीं हूँ। लेकिन बाज़ार की रवायत का कुछ असर मुझ पर भी पड़ना लाजिमी है। और इसी क्रम में इस तथाकथित “प्रेम सप्ताह” में जिस में हर एक दिन का कुछ नाम है, मैं प्रेम, जो कि सभी भावनाओं का सार है उस पर अपने विचार इन दोहों के माध्यम से आप तक प्रेषित कर रहा हूँ। आपकी टिप्पणियाँ और विचार दोनों का स्वागत है!
अलग-अलग से रूप में, अपना-अपना प्यार | 
कोई बोले आँख से, कोई देता उपहार | १ | 
बहुत दिनों से दोस्त की, कोई कुशल ना क्षेम | 
लगता है मेरे यार को, हो ही गया प्रेम | २ |
ना कान्हा की बाँसुरी, ना मीरा का गान |   
नये दौर के प्यार का, ले लीजिये कुछ ज्ञान | ३ | 
करिये जब भी प्रेम तो, ना करिये “मैं” का मान | 
खोइये प्रेम-भाव में, रहे ना खुद का भान | ४ | 
इश्क़ ही रब का रूप है, कह गये पीर-फ़कीर | 
दिल से दिल की बात हो, ना आये बीच शरीर | ५ | 
सोने से चमके है है जो, ना कहिये उसे प्यार | 
असली प्रेम तो देख ले, कुटिया में घर-बार | ६ | 
वो सब कुछ पर ना प्रेम है, जो देखे मीत का रूप | 
असल प्रेम हो जाये तो, लगे प्रेमी-रूप अनूप | ७ | 
कुछ थोथा सा प्रेम वो, भारी जिसके बोल | 
बिन बोले जब बात हो, वो हर एक पल अनमोल | ८ | 
दूजा नाम कोई प्रेम का, तो वो है विश्वास | 
संग साथ हो मीत का, चले जीवन बिन श्वास | ९ |
हलचल सी चेहरे पर हो, रहे बिना बात कोई शांत | 
उथला ना समझो उस जीव को, है सागर वही “प्रशान्त” | १० | 
-प्रशान्त  

Leave a comment