जब कभी भी जाना
तो मार देना मेरे प्रेम को भी,
मैं नहीं चाहता
अब तक था जो मेरे अन्दर
सबसे सुन्दर रूप
वो बने कभी भी कुरूप।
कब तक करूंगा धारण
मैं सभ्यता की भारी पोशाक,
मैं नहीं चाहता
वीभत्स हो कभी भी
मेरी अभिव्यक्ति
रचे हैं मैंने जिस से प्रेम-गीत अनूप।
पर, जब कभी भी जाना
ना देना मुझे संबल कोई,
मैं नहीं चाहता जीना
झूठी आशा के प्रकाश में
आलोकित है मेरा अन्तर्तम अस्तित्व
भरपूर,सत्यता से मेरे भावों की।
हाँ, जब कभी भी जाना
तो रख लेना कुछ स्मृति-शेष,
मैं नहीं चाहता
पड़ो जब कभी तुम संशय में
मिले तुम्हें कोई और प्रतिमान
अन्यथा मेरे नितांत ‘प्रशांत’ प्रेम के।
-प्रशान्त