इत्तेफ़ाकन वो दिन याद आया आज

इत्तेफ़ाकन वो दिन याद आया आज

जब चाय की चुस्कियां मैं बिन पिये ले लेता था 
आज भी पीते  हैं मेरे जानने वाले 
पर इस महफ़िल में वो बेतकल्लुफ़ी कहाँ 
बेहिचक कन्धों पर दोस्तों के रख देता था सिर 
अब ज़िन्दगी में वो बेतकल्लुफ़ी कहाँ 
अलग निशाँ ढूढनें को चल पड़े सब 
वो जो कल था एक अपना वो रास्ता कहाँ 
इत्तेफ़ाकन वो दिन याद आया आज 
जब बिन सुने कई कहानियाँ जी लेता था 
प्यार चुहलबाज़ी थी जवाँ दिल की तब 
नहीं कोई मुद्दा वो संगीन था 
ख़ता करने में ना डर था कोई दिल में 
सज़ा कुछ भी हो पता था क़ातिल ना होगी 
आज बोलूँ कुछ और मतलब कुछ और निकलता है 
जिसमें होती थी तुमसे बात ना जाने वो ज़ुबां कहाँ है 
इत्तेफ़ाकन वो दिन याद आया आज 
नामुमकिन सपने जागती आँखों से देख लेता था 
जिधर देखो दरवाज़े थे मेरी मंजिल की तरफ़ 
आज जैसी लम्बी दीवारें तब थीं कहाँ 
थीं जितनी भी बुरी पर सुबहें थीं नयीं 
आज जैसा ठंडा सूरज तब नहीं था 
इश्क था रश्क था दोस्ती दुश्मनी थी 
इतने रिश्ते बनाता था,ना जाने मेरा दिल वो कहाँ है 
– अशांत 

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