व्यवासायिक प्रेम

उस चौराहे की बेंच आज भी वैसी है
बस उम्र के कुछ साल और बढ़ गए
वहां झुकी डाल आज भी वैसी है
बस गिरने वाले फूल कम पड़ गए 
वो पत्थर का पटरा जिस पर हम  बैठे थे
आज भी वैसा है 
फिर बदला क्या है?
कहने को कुछ भी नहीं
सोचो तो बहुत कुछ 
वो वक़्त था जब छुप के ढूँढा था 
उस बेंच को इस फिराक में 
प्रेम की पनपी कली 
आभिजात्य घुटन में दब ना जाए 
आज ऐसा नहीं हैं !
कोई नहीं ढूढता ऐसी जगहें 
प्रेम आज व्यवसाय है 
बाज़ार ढाल रहा है जिसको 
अपने कुरूप साँचें में 
सजाने को अपनी दुकानों में 
जो बिकेगा छूट पर “वैलेंटाइन डे” को 
अशांत 

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