इमारतें, कुर्सियां जिंदा हो जातीं हैं
जब उन पर इंसान बैठते हैं
दिमाग सन्नाटे से भीड़ में आता है
जब कहीं विचार उबलते हैं
इश्क वही सच्चा है
जो आग को बुझने ना दे
कर मायूस न कभी और
मंज़िल से पहले रुकने ना दे
कमरों में कब तक चलेगी लफ्फाज़ी
घूमते रहेंगे कब तक चक्करों में
कुछ तो अपनी बोलो
कहो कुछ ऐसा, जो किसी ने कहा न हो
कागजों के पुलिंदों से
काबिलियत को निकलने दो
अटैची में बंद दम न घुट जाए
कुछ नहीं तो सुराख ही करो
थोड़ी हवा तो आने दो
शीशे में बंद फूलों से
आँखों ने बहुत ठंडक ले ली
तोड़ दो इस “शो-पीस ” को
कोई नयी कलि पनपने दो
मसलना मत, आँखों से पानी देना
एक नया फूल खिलाना कोई
जो हो चटख, लुभावना, महकदार
अशांत