कोरा कागज़ जब हाथ से छूटता है तो हवा में असंख्य करतब दिखाने के पश्चात अंत में धरती से आ मिलता है. एक ऐसा मिलन जिसका पुनर्ज्ञान शायद उसे उसी क्षण होता है जब वो किसी सहारे से अलग होता है. वही कागज़ जब आकार पाता है, उसे किसी डोर से जोड़ा जाता है जिसका एक सिरा हाथों की उँगलियों में निरंतर गतिमान रहता है, तो वही कागज़ पतंग बन जाता है. एक ऐसी पतंग जिसकी कोई सीमा नहीं. एक अवलंब कागज़ का टुकड़ा थोड़ी से सहायता से हवा के साथ उड़ने वाली पतंग बन जाता है. मानव जीवन भी तो एक पतंग ही तो है. अगर संसार की भौतिकताओं से अलग कर दिया जाये तो जन्म से ही मानव का अस्तित्व क्या है? शायद कुछ नहीं! असली रंग तो तभी चढ़ता है जब आत्मा का कोरा कागज़ अपनी शाश्वत यात्रा प्रारंभ करता है. एक ऐसी यात्रा जहाँ उसका ध्येय होता है एक आकार प्राप्त करना, मनभावन रंगों से साक्षात्कार करना, एक अदम्य इच्छा स्वयं को मजबूत डोर के एकसूत्रीय बंधन में बाँधने की, एक हाथ जो की उसे दिशा दे सके. दिशा जो की सिर्फ उत्थान की ओर गमन करे, निरंतर उत्थान की ओर, हवा के झोंकों से सामंजस्य स्थापित कर सदैव उत्थान की ओर.
बचपन शुरू होते ही ना जाने कितने समीकरण समझा दिए जाते है हमको,जिसके अनुसार हमें अपने जीवन को स्थापित करना होता है. स्थापित मानदंडों से थोड़ी सी असमानता भी हमें अवांछित बना देती है. दबी हुई भावनाओं का ज्वार मानव जीवन के अंत के साथ या तो अंतिम सत्य को प्राप्त हो जाता है या फिर किसी ऐसे वीभत्स रूप में अभिव्यक्त होता है जिससे मानवता कलंकित होती है. ऐसी स्थिति में पतंग का अस्तित्व कितना व्यावाहारिक लगता है. एक चरखी ली, डोर को पतंग से जोड़ा और दौड़ गए. कुछ क्षणों बाद हमारी भावनाएं पतंगों के साथ चूमने लगती हैं गगन को जिसका विस्तार अनंत है. प्रतिस्पर्धा किन्तु वहाँ भी है, मदमस्त हवा के साथ उड़ती पतंग से होड़ लगाने को कई पतंगे लहराती रहती है. और कभी कभी तो आकाश पतंगों के मकडजाल से ढक जाता है, या यूँ कहें प्रतिद्वंदी भावनाओं का अखाड़ा बन जाता है. फिर शुरू होता है खेल दांव पेच का, जिसमे अंत में कोई खिलाडी तो कोई अनाड़ी बनता है.
बचपन से लेकर आज तक कभी पतंग उड़ाई नहीं है. घर में हमेशा सिखाया गया कि पतंग उडाना गन्दी बात है. पतंग न उड़ाने से समय कि तो कोई ख़ास बचत नहीं हुई क्योंकि बारजे पर या छत पर खड़े होकर घंटो पतंग को उड़ते देखा है. हाँ!एक सुखद अनुभूति अवश्य होती थी नीले आकाश की पृष्ठभूमि में पतंगों की रंगोली देखने में. सामान्य से भिन्न ये रंगोली निराकार होती थी, जिनका रूप प्रतिक्षण बदलता था. इस से ये समझ में आया कि प्रसन्नता दूसरों के कार्यों से भी पाई जा सकती है.
अंत में बस यही विचार आता है कि क्या हमें वास्तविक जीवन में उन्मुक्त वातावरण नहीं मिल सकता, जहान हमारी भावनाएं भौतिक संसार में आकाश में अठखेली करती पतंग की तरह मदमस्त रहे. हमें कुछ ऐसे रिश्तों की कभी ना कटने वाली डोर मिले जिसको पकड़ कर हम अपने पतंगी जीवन को नयी उड़ान दे सके. या कहे की खुद को एक नया जीवन दे सके!! स्वछन्द और सुन्दर!!
NOTE: Picture designed by my friend Rumman who is student of NIFT, Kangra.
