कब तलक तेरे संग दो लम्हों को तर्सूंगा मैं
न जाने कब मेरे आगे तेरे जज़्बात बेपर्दा होंगे
पर ये उम्मीद है की वो शाम भी आएगी
जब कोई महफ़िल ना हमारी मुलाकात- ऐ-गवाह होगी।
ये तूने ही लिखा था मुझको जानम
की खुल के ना हुई गुफ्तगू अब तक
पर ये समझ में ना आए मुझे
की अफ़सोस है ये या ही शिकायत तेरी।
यूँ तो आंखों की जुबां बहुत कुछ कहती है
पर ये भी तुम समझो कि मोहब्बत की दूरी
तेरे कुछ लफ्जों का सहारा मांगती है
न जाने किस पल ये ख्वाहिश मेरी पूरी होगी।
अशांत